झिझक के पल।

“झिझक के पल”

के बारे में मुझे अगस्त 1979 में ठीक से पता चला।मैं उस समय भचाऊ ,कच्छ, गुजरात में नौकरी पर था। जुनियर ईन्जीनियर ट्रेक।

11-8-1979 को भचाऊ से करीबन  70 कि.मी.दूर मोरबी में मच्छू बांध2 तेज बारिश के कारण टूट गया व 25-30 फुट ऊंचे  (दो तीन मंजिला) पानी की अचानक आई बाढ़ से मोरबी में करीबन 25,000 लोग मारे गए।बाढ़ का पानी भचाऊ तक फैला।लाशें भी सुना था सामखयाली स्टेशन तक आई ,जो कि 20 कि.मी.दूर था।उन दिनों भचाऊ में भी बहुत तेज बारिश हुई थी।इतनी ज्यादा कि बड़ी लाईन के दोनों प्लेटफार्म के बीच फूल्ल पानी भरने के बाद उपर से बह रहा था, जबकि भचाऊ रेलवे स्टेशन पहाड़ी पर बना हुआ था।भचाऊ के आउटर सिगनल के पास,अहमदाबाद तरफ,करीब 100x50 फुट लम्बा×गहरा कटाव हो गया था।व अनेक छोटे कटाव हो गए थे। ट्रैने बंद कर दी गई थी।उन दिनों में मोबाईल वगैरह की सुविधा नहीं थी। समाचार देरी से मिलते थे।

ऐसे में मुझे शाम को ओर्डर मिला कि आप कल सुबह पुश ट्रोली से ए.ई.एन.कंशट्रक्शन अरोड़ा जी के साथ मालिया मियाना तक जायें और दूसरे दिन पुश ट्रोली से लौटें और स्टाफ की और पटरी की खैर खबर लेकर आएं। रेलवे के कंट्रोल फोन भी बंद थे।सारी रात टेंशन में गुजरी। रास्ते में जगह-जगह पटरी टूटी होगी,लाशें बिलकुल पास में पड़ी हुई दिखाई देंगी।बदबू आ रही होगी।पता नहीं कितने दिन जाने आने में लगेंगे। कहां रूकेंगे।क्या खाएंगे।

ऐक्सीडेंट व ब्रीचेज के समय न जाने पर रेलवे में सख्त कार्यवाही होती है। इसलिए अत्यधिक दुखी मन से युद्ध में जाने की तैयारी करी। बरसात बंद थी। मौसम खुला।कम्बल, ऐक्स्ट्रा टोर्च,सैल,लम्बी मजबूत रस्सी,खाना, एक एक्स्ट्रा गैंगमैन,आदि साथ में लिया।मेरा चेहरा ऐसा हो रहा था मानों मौत के मुंह में जा रहे हों। हमारी हेंड पुश ट्रोली की स्पीड दस कि.मी.प्रति घंटा से कम होती है।

सुबह 8 के पहले रवाना हुए। एक कि.मी.दूर ही,आउटर सिग्नल के पास एक बहुत बड़ा खड्ढा़बन गया था।उस पर ट्रेक लटका हुआ था।और एक तरफ झुका हुआ था। ऐसा लग रहा था कि ट्रोली बीच में गिर जाएगी। उसके उपर से जाना मजबूरी थी।अनुभवी ट्रोली मैन

भग्गा भाई ने कहा कि आप डरना मत और रास्ते में ब्रेक मत लगाना।मैंने सारे भगवान को याद कर लिया।हल्का ढ़लान था। कुछ दूर से धक्का देकर ट्रोली मैन भी पुश ट्रोली पर बैठ गए।ट्रोली लहराती हुई आर पार निकल गई।गहरी सांस ली। भगवान को धन्यवाद दिया।उसके बाद 16 कि.मी.दूर सामखयाली तक कोई खास नुकसान नहीं मिला।

तब रास्ते में अरोड़ा जी ने मुझे समझाया कि जीवन में कई बार “झिझक के पल” (Moment of hesitation) आते हैं और उनको पार करना पड़ता है। यह पल पार होते ही हमारा मन हल्का हो जाता है। आज तुम काफी डरे हुए लग रहे हो। कुछ परेशानी नहीं होगी।सब ठीक हो जाएगा।अभी तक कोई खास ब्रिचेज नहीं मिले हैं,भचाऊ के बाद।रीलेक्स।

सामखयाली,सुरबारी,स्टेशनों पर कोई खास कमी नहीं मिली।मालिया मियाना के रास्ते में एक बड़ा सुरबारी पुल भी आया जिसके निचे से समुद्र का पानी टाईड आने पर आता है। हम उजाले में मालिया मियाना पहुंच गए। रास्ते में कोई लाशें नहीं मिली। वहां भी सब ठीक मिला।

रास्ते में शायद सुरबारी स्टेशन पर टिफिन में लाया खाना खा लिया था। मालिया मियाना के ओफिस में चाय पी। कोई बारिश या बाढ़ या लाशें नहीं मिली। रास्ते में ट्रोली को ट्रैक से हटाना भी नहीं पड़ा क्यों कि ट्रेनें बंद थी। वैसे हर घंटे में चार बार हटानी व रखनी पड़ती थी। अब भचाऊ  लौटने का टेंशन जगा।पी.डब्लू.डी.का सरकारी ट्रक किसी काम से आया था। उसके स्टाफ से बात की।खाली भचाऊ लौट रहा था। उसमें ट्रोली रख ली वह हम लोग भी बैठ गये।रात 10 बजे तक घर लौट आए।उस भचाऊ वाले बडे़ कटाव को भरने में रेलवे को उस जमाने में दो महीने लगे थे।

“झिझक के पल” के बारे में समझायी अरोड़ा जी की बातें करीब 40 साल बाद आज भी याद है। बिना वजह कल्पना करके डरना आज भी याद है।

-किरीटनेच्युरल.

12-01-2018

Comments

  1. बहुत रोचक. यह पढ़ कर मुझे भी अपने रेलवे के शुरुआती दिनों की याद हो आई.
    बहुत अच्छा लिखा आपने.

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  2. रोचक। झिझक के यह पल अक्सर जिंदगी में आ जाते हैं। अरोड़ा जी की सीख वाकई सदैव प्रासंगिक रहेगी।

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