उसकी कुछ मिनटों की मुलाकात मौत से।

मिट्टी ढ़हना ,दबना फिर बच निकलना व उसकी घबराहट क्या होती है यह नजदीक से देखा था।उस घटनाक्रम में मेरा एक पात्र होना मुझे आज भी याद है।

मेहसाना से करीब 50 कि.मी.दूर रेलवे पुल 945.बारिश का मौसम।सितंबर1976.करीब तीन महीने के लिए मुझे पुल साईट पर ही रहने की सजा मिली थी।मुझे वांकानेर स्टेशन से भेजा गया था।मैं वहां जुनियर ईन्जीनियर के बतौर काम कर रहा था।

पिछले साल अधिक बारिश में पुराना पुल बह गया था व कई दिनों तक ट्रेन बन्द रही थी।बाद में स्टील के पिंजरों पर गर्डर बाँधकर उस पर लकड़ी के स्लीपर व उस पर रेल बाँधकर  ट्रेन आहिस्ता चलाते थे।फिर पास में नया बेहतर ऊंचा और लम्बा पुल बनाया गया था।नए पुल के उपर गर्डर बारिश शुरू होने के बाद रखे गये थे।

पुराने पुल को तोड़कर मलबा पूरा हटाया जा रहा था क्योंकि डाउन साईड पर था व नदी के बहाव को रोकता था। यह काम विभाग की कच्ची लेबर कर रही थी जो आई.ओ.डब्लू. के अधीन थी।मेरे लिए सुपरवाईज करना जरूरी नहीं था।वह पुल बडे़ पत्थरों से बना सालों पुराना था व ठोकर के अंदर मिट्टी भरी थी। नया पुल आर.सी.सी.का बेहतर था और उसके खम्भों पर नये मजबूत गर्डर रखे गये थे।

उस दिन मैं साईट के टिन शेड में बैठा कुछ काम कर रहा था। दिन मैं थ्री अप ट्रेन तेजी से गुजर रही थी कि ड्राईवर ने अचानक ब्रेक लगाया।आवाज़ हुई और मुझे लगा कि कोई खतरा है।मैं दौड़कर पुल की तरफ गया।वहां पुल तोड़ने वाली लेबर चिल्ला रही थी।हल्ले के बीच बड़ी मुश्किल से पता चला कि पुराने पुल की मिट्टी अचानक ढ़ह गई है और कुछ लेबर दब गयी है। बड़ी मुश्किल से एक लेबर को मेरे टपरे से एक्सट्रा फावडे़ लाने दौड़ाया।लेबर में कुछ औरतें भी थी जो घबराहट में रो रही थी व मिट्टी के ढे़र को घेरे थी व बचाव कार्य में बाधा डाल रही थी। बड़ी मुश्किल से जबरन उनको दूर किया। कुछ लोग फावड़े से मिट्टी हटा रहे थे और कुछ हाथ से।

मिट्टी के निचे से एक लेबर सलामत निकला। घबराया हुआ था पर ठीक था।उसको सांत्वना दी। मेरे टिनशेड पर ले जाकर मैंने उसे दर्द की गोली दी। पानी पिलाया व चाय पिलाई।बाद में पता चला कि वह घुटनों के बल बैठ गया था और सर को हाथ से बचाने की कोशिश की थी। कुछ जगह रह गयी थी और सांस ले पाया था। एक और लेबर पांव तक दबा था।बच गया।

उस समय मेरी उम्र 28 वर्ष थी।मेरे लिए यह एक घबराहट व मुश्किल का अनुभव था।वह लेबर करीबन 30 मिनट तक मिट्टी में दबा रहा था और बच गया। मैंनें किसी तरह उस भीड़ को सम्हाला व काम करवाया व सफल रहा।सालों बाद भी मैं घटना को नहीं भुला पाया।

किरीटनेच्युरल।

14-01-2018

Comments

Popular posts from this blog

झिझक के पल।

डा.परमार,आंखों के सर्जन। भचाऊ कच्छ गुजरात। मृदुल स्वभाव। कुछ महीनों में ही उनसे पहचान हो गई।10 साल की कयी अच्छी यादें हैं। मुझे उन दिनों अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का शौक था। भचाऊ जैसी छोटी जगह पर कोई मिला।वे अहमदाबाद से पुराने उपन्यास थैला भरके लाते थे। पढ़ते थे और मुझे भी पढ़ने के लिए देते थे। उन्होंने ही मुझे फटे- पुराने उपन्यास पढना सिखाया।तब तक मैं नये महंगे खरीद कर पढ़ता था। मुझे इंडिया टूडे, रीडर्स डाइजेस्ट, फेमिना, खरीदने का शौक था जो मैं उन्हें देता था। पिताजी और पत्नी का इलाज भी उनसे करवाया था। अच्छे डाक्टर थे। प्रसिद्ध थे। जगन्नाथ भाई, वकील,डा.आचार्या, जेठालाल भाई, आदि शाम को मांडवी चौक में जगन्नाथ भाई की दुकान पर मिलते थे और अलग 2 विषयों पर चर्चा करते थे। बहुत ही यादगार दिन थे वो।